फूलदेई छम्मा देई, जदुकै दिछा उदुकै सही!
फाल्गुन जा रहा है। चैत का महीना आने को है और चैत माह के पहले दिन पूरे उत्तराखंड में एक खुबसूरत त्योहार मनाया जाता है, फूलदेई (PhoolDei) ।
बसंत ऋतु के आगमन पर, प्रकृति का आभार व्यक्त करने के लिए मनाए जाने वाले इस त्यौहार की बात ही अलग है।
फूलदेई (PhoolDei) की छुट्टी होनी चाहिए
फूलदेई (PhoolDei) लोकपर्व की कोई सरकारी छुट्टी नहीं होती। इसलिए जब बचपन में फूलदेई खेलने जाते थे तो एक चैलेंज रहता था कि स्कूल की टाइमिंग से पहले ही हर घर की देहली पर फूल डाल आएं। फूलदेई का बोल आएं।
कई बार ऐसा हुआ कि स्कूल की ड्रेस पहनकर फूल खेलने जाते थे लेकिन जानबूझकर लेट लतीफी करते थे ताकि स्कूल ना जाना पड़े। वैसे भी बचपन में स्कूल किसे पसंद था।
कुल मिलाकर स्कूल की छुट्टी ना होना इस पर्व का मजा थोड़ा कम जरूर करती थी। मगर हम फुल मजे लिया करते। चावल और गुड़ तो हर घर से मिलता था, किसी किसी घर से पैसे भी मिल जाया करते। बाद बाद में कुछ लोग टॉफी भी देने लगे।
हम दोस्तों के बीच एक अलग ही कंप्टिशन चलता था। जिसकी बाल्टी में ज्यादा चावल, वो हीरो।
फूलदेई (PhoolDei) के चावलों का बनता है फूलखाज और चावल की साई
घर घर से मिले चावलों का रात में फुल खाज (चावल का एक पकवान) या चावल की साई (चावल को सिलबट्टे में पीसकर हलवा) बनाया जाता। जिसे अगल बगल के घरों में भी दिया जाता था।
कहां गए वो मस्ती भरे दिन?
कुल मिलाकर वो मस्ती भरे दिन थे, तब नहीं पता था कि फूलदेई क्यों मनाई जाती है, बसंत ऋतु क्या है, उसका हमारे रहन सहन में क्या महत्व है। बस इतना पता था कि ईजा लोग जंगल से बुरांश के फूल तोड़ लाते, हम गेहूं के खेतों से मिझौव के फूल तोड़ लाते। बाकी आड़ू, खुमानी, पुलम, नाशपाती और सरसों तो घर घर में खिली ही रहती है।
फूलदेई (PhoolDei) पहले और आज में अंतर
फूलदेई से एक दो दिन पहले, ईजा लोग ओखली में और दिनों से ज्यादा धान कूटा करती थीं, कहीं बच्चो के लिए चावल कम न पड़ जाए इसलिए।
लेकिन आज हालात अलग हैं, फलों के पेड़ों को बदरों ने कम करवा दिया है। और पलायन की मार ने गांव के घरों को खाली कर दिया।
जिस घर में कभी टॉफी मिलती थी आज वहां कोई जाता नहीं, क्योंकि उधर टॉफी देने वाले दादाजी दुनिया से चले गए और उनके बच्चो को फुलदेई का कुछ पता नहीं, बचपन से ही बाहर रहे ठैरे।
ईजा लोग अब ओखली कूटना छोड़ चुके हैं, चक्की के आने से आराम हुआ है। बाकी कुछ लोग तो कंट्रोल के चावलों से ही टरका देते।
बच्चों में नहीं रहा पहले जैसा बचपना
बच्चों में भी अब पहले जैसा बचपना नहीं रहा, स्मार्ट हो गए हैं, समय से पहले सयाने होना भी बड़ा बुरा है, स्कूलों में आज भी इस पर्व की छुट्टी नहीं होती। पहले सरकारी स्कूल नौ दस बजे तक की मौहलत दे देते थे, अब प्राइवेट स्कूल की बसें आठ बजे ही सड़क में आ जाती हैं।
ख़ैर, जैसा है सही है… ज़माना बदल रहा ठैरा।
नोट- यह लेख सोमेश्वर घाटी के राजेंद्र सिंह नेगी जी द्वारा लिखा गया है।
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