भेदभाव
विश्वगुरु और वसुधैव कुटुम्बकम् जैसे शब्दों का इस्तेमाल होना ही देश के लिए गर्व की बात नहीं होती, बल्कि वसुधैव कुटुम्बकम् की विचारधारा का अनुसरण करने से देश का गौरव बढ़ता है।
अक्सर हम अखंड भारत की बात करते हैं पर कुछ घटनाएं हमें हमारी अखंडता का परिचय दे ही देती हैं।
गावों की अगर मैं बात करूं तो हमारे देश में लाखों गांव हैं और उन गावों में हजारों जातियों के करोड़ों लोग रहते हैं, हर जाति अपने से एक छोटी जाति ढूढकर उस जाति के लोगों से भेदभाव करना शुरू कर देती है।
सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि ये जातिगत भेदभाव भी आर्थिक आधार पर तय होता है, जो व्यक्ति आर्थिक रूप से जितना कमजोर है उसपर उतनी ही पाबंदियां लगा दी जाती हैं, अर्थात उसकी आर्थिक स्थिति ही तय करती है कि वह मंदिर में पूजा कर सकता है या नहीं, उसे टीका लगाया जाएगा या पत्ते में दिया जाएगा, उसके हाथ का लगा जल पीने योग्य है या नहीं, वो शिवलिंग पर जल चढा सकता है या नहीं।
कुल मिलाकर जातिगत भेदभाव की हकीकत यही है कि, अच्छी आमदनी और अच्छे औहदे में पहुंचे हुए दलित के पैर दबाने में भी गर्व महसूस होता है और आर्थिक रूप से कमज़ोर व्यक्ति के स्पर्श मात्र से व्यक्ति अपवित्र हो जाता है।।
जातिगत भेदभाव पर हावी है राजनीति
हमारे समाज में जातिगत भेदभाव का इतिहास भले ही सदियों पुराना रहा हो लेकिन वोटबैंक की राजनीति इसे आज भी तरोताजा रखने के लिए हरसंभव प्रयास करती है।
न्यूज चैनलों की अगर बात करें तो वो भी टीआरपी के हिसाब से इसका इस्तेमाल करते हैं।
पहाड़ों में जातिवाद और भेदभाव
अगर पहाड़ो की बात करें तो पूरे पहाड़ में जातिगत भेदभाव इस कदर हावी है, कि यहां यह सिर्फ दलितों तक सिमित न होकर ब्राह्मणों में भी ;लागू होता है यहाँ अनेक प्रकार के ऐसे ब्राम्हण भी हैं जो एक दूसरे ब्राह्मणों के हाथ का बना हुआ चावल नहीं खाते हैं तथा उनके आपस में शादी-ब्याह नहीं होते हैं। ऐसा ही अन्य जातियों में भी है कि वो एक दूसरे के हाथ का पानी नहीं पीते हैं।
पहाड़ों से शहर जाते ही जो लोग एक रूम में रहना तथा एक ही थाली में खाना खाने को तैयार हो जाते हैं वो लोग भी पहाड़ों में आकर एक दूसरे के हाथ का खाना खाने से कतराने लगते हैं।
जातिगत भेदभाव का ये रोग पूरे समाज के लिए एक कलंक बन चुका है।।
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