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उत्तराखंड में स्वास्थ्य व्यवस्था : विश्व स्वास्थ्य दिवस विशेष

उत्तराखंड में स्वास्थ्य व्यवस्था

उत्तराखंड में स्वास्थ्य व्यवस्था की हकीकत बयां करती एक विस्तृत रिपोर्ट

7 अप्रैल को पूरी दुनिया के लोग विश्व स्वास्थ्य दिवस मनाते हैं जिसमें स्वास्थ्य को और उन्नत करने पर बल दिया जाता है , जिसमें साल 2023 का विषय है “सबके लिए स्वास्थ्य” परंतु उत्तराखंड में मरीज़ों को सही समय पर एम्बुलेंस न मिलने, उचित उपचार की कमी, डॉक्टरों की सीमित उपलब्धता, गांवों में सड़क ना होने और कई कारणों के चलते अपनी जान से हाथ धोना पड़ता है। लेकिन इसके बावजूद राज्य की स्थापना के 23 सालों के बाद भी उत्तराखंड में स्वास्थ्य पर खर्च, यहाँ के एसजीडीपी का मात्र 1.1% के आसपास है। (सम्बंधित SRS )
उत्तराखंड में स्वास्थ्य व्यवस्था की इस स्थिति के बावजूद उत्तराखंड विश्व स्वास्थ्य दिवस कैसे मनाए, और उस राज्य में जहां अनेकों लोग इलाज के बिना ही मर जाते हैं तो वहां स्लोगन “सबके लिए स्वास्थ्य” कैसे सफल हो सकता है?

कुमाऊं के सबसे बड़े अस्पताल का हाल बेहाल

उत्तराखंड के पहाड़ी इलाकों की ग्रामीण जनता को इलाज के लिए किन कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है इसे हम कुमाऊं के सबसे बड़े हॉस्पिटल सुशीला तिवारी मेडिकल कॉलेज के उदाहरण से समझते हैं।

सुशीला तिवारी पूरे कुमाऊं का एक ऐसा अस्पताल है जहां सरकारों द्वारा दावा किया जाता है कि हम इस अस्पताल को बेहतर बना रहे हैं और इस अस्पताल में पूरे कुमाऊं के साथ-साथ उत्तरप्रदेश के बरेली, रामपुर, मुरादाबाद, पीलीभीत, बिजनौर, सुल्तानपुर इत्यादि के लोग इलाज के लिए आते हैं, यानी मोटे तौर पर देखा जाए तो उत्तराखंड के इस अस्पताल में 12 जिलों के लोग अपने इलाज के लिए आते हैं, क्योंकि सरकार दावा करती है कि इससे बेहतर उपचार लोगों को कहीं नहीं मिलता। परंतु सच्चाई तो यह है कि यह अस्पताल अपनी मूलभूत सुविधाओं के लिए तरस रहा है ।

नारायण दत्त तिवारी जी की देन है उत्तराखंड का सुशीला तिवारी अस्पताल

जब उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के पूर्व मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी जी ने इस हॉस्पिटल को बनवाया था तो उनकी मंशा थी कि इससे कुमाऊं को बेहतर इलाज मिलेगा, लेकिन आज वह नहीं हो पा रहा है

एक तो यहाँ डॉक्टरों की कमी है और जो डॉक्टर हैं भी तो उनमें से ज्यादातर डॉक्टरों के अपने प्राइवेट क्लिनिक खुल गए हैं, जिससे उनका ज्यादा ध्यान अपने क्लीनिक पर जाता है, इस हॉस्पिटल में अल्ट्रासाउंड के लिए दो 2 महीने का इंतजार करवाया जाता है अगर कोई इमरजेंसी केस हो तो उसे कह दिया जाता है कि आप बाहर से अल्ट्रासाउंड करवा कर लो।

कम बजट, चिकित्सकों की कमी, जंग लगी मशीन, यही है उत्तराखंड में स्वास्थ्य व्यवस्था.

उत्तराखंड के पहाड़ी इलाकों से लेकर शहरी इलाकों के अस्पताल राम भरोसे हैं, यहाँ समय पर ना एम्बुलेंस मिलती हैं, ना डॉक्टर, ना नर्स और ना ही दवाइयां इसके कुछ उदाहरण प्रस्तुत हैं

ख़राब सड़क और एम्बुलेंस की कमी

पहाड़ी इलाकों में स्वास्थ्य केंद्रों की कमी और दूरी के चलते इन इलाकों में एम्बुलेंस व्यवस्था और सड़कों का महत्त्व काफी बढ़ जाता है। लेकिन, अधिकतर यह पाया जाता है कि ख़राब सड़कों और एम्बुलेंस की कमी के चलते मरीज समय पर अस्पताल भी नहीं पहुँच पाते हैं।

नैनीताल जिले के रामगढ़ क्षेत्र की घटना

पिछले साल नैनीताल जिले में एंबुलेंस सेवा की लापरवाही के कारण रामगढ़ क्षेत्र में गर्भस्थ शिशु ने अपनी मां के गर्भ में ही दम तोड़ दिया। रामगढ के तारा चंद्र ने अपनी पत्नी की प्रसव पीड़ा बढ़ने पर 108 एम्बुलेंस सेवा को फ़ोन किया तब उन्हें एक घंटे इंतज़ार करने को कहा गया, एक घंटे के बाद फिर से फ़ोन करने पर उन्हें बताया गया कि एम्बुलेंस का टायर पंक्चर हो गया है। इसके बाद तारा को निजी वाहन में अस्पताल ले जाया गया।

पिथौरागढ़ जिले के नामिक गाँव की घटना

बदहाल स्वास्थ्य सुविधाओं के साथ-साथ बदहाल सड़कों की मार भी पहाड़ के गांव में रहने वाली जनता पर पड़ती है, ऐसी ही एक घटना पिछले साल पिथौरागढ़ जिले के अंतिम गांव नामिक की है। भोपाल सिंह टाकुली की 27 वर्षीय पत्नी गीता टाकुली, गांव में बारिश के कारण सड़क के टूटजाने से चार दिनों तक प्रसव पीड़ा को झेलती रही, बाद में ग्रामीणों ने महिला को डोली के सहारे आपदा में ध्वस्त और बदहाल रास्तों पर 10 किमी चलकर बागेश्वर जिले के गोगिना गांव पहुंचाया। यहां से वाहन से 35 किमी की यात्रा कर गीता को सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र कपकोट ले जाया गया था ।

भीमताल के मलुवाताल की घटना

पिछले साल भीमताल से मात्र 12- 15 किलोमीटर दूर मलुवाताल में भी एक बुजुर्ग के बीमार होने पर वहां के लोग उन्हें डोली में रखकर 10 किलोमीटर की खड़ी चढ़ाई पार करने के बाद जंगलिया गांव के मुख्य सड़क में लाए थे, जहां से उन्हें फिर हल्द्वानी ले जाया गया।

पिथौरागढ़ स्वस्थ्य केंद्र की स्तिथि

पिथौरागढ़ के स्वास्थ्य केंद्र में पिछले 20 साल से मरीज अस्पताल के बरामदे में सोने के लिए मजबूर हो रहे हैं।

यानी पूरे उत्तराखंड के पहाड़ी क्षेत्रों में स्वास्थ्य व्यवस्था की हालत इतनी बिगड़ चुकी है कि लोग अच्छी स्वास्थ्य सुविधा ना मिलने के कारण अपनी जान गंवा देते हैं।

शिशु मृत्यु दर में उत्तराखंड

स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय भारत सरकार द्वारा जारी रूरल हेल्थ स्टेटिस्टिक्स रिपोर्ट 2019-2020 के अनुसार उत्तराखंड में इन्फेंट मोर्टेलिटी रेट (IMR) या शिशु मृत्यु दर (प्रति 1000 नए जन्मे बच्चों में ऐसे बच्चे जिनकी मृत्यु एक साल के भीतर हो जाती है) कुल 31 है, यह ग्रामीण क्षेत्रों में 31 और शहरी क्षेत्र में 29 है। जबकि हमारे पड़ोसी राज्य हिमांचल की बात करे तो कुल शिशु मृत्यु दर 19 है जोकि ग्रामीण क्षेत्र में 20 और शहरी क्षेत्र में 14 है।

भीमताल के स्वतंत्र पत्रकार दीपक जोशी के अनुसार

राज्य की बदहाल स्वास्थ्य व्यवस्था के बारे में भीमताल के स्वतंत्र पत्रकार (यूट्यूबर) दीपक जोशी जी का कहना है कि “राज्य में स्वास्थ्य व्यवस्था की हालत खराब है, यहाँ के अस्पतालों में यदि शिद्दत के साथ कोई काम होता है तो वह है मरीजों को रेफर करना। राज्य के पहाड़ी इलाको में तो ऐसे हालात हैं कि गर्ववती महिला अपने प्रसव के अंतिम दिनों में हल्द्वानी या मैदानी क्षेत्र में रहने वाले अपने किसी रिश्तेदार के यहाँ जाकर रहने लगती है ताकि समय आने पर उसको उचित सुविधा मिल सके।”
वही यूट्यूबर दीपक जोशी ने सवाल उठाते हुए कहा कि आज के युवा पीढ़ी को यह देखकर दुख नहीं हो रहा है, नेताओं से उन्होंने सवाल पूछना छोड़ दिया है और आज के 80% युवा को यह पता ही नहीं है कि हमारे क्या अधिकार हैं और हमको कैसे लड़ना चाहिए, कुछ को तो यह तक पता नहीं है कि हमारे स्वास्थ्य मंत्री कौन हैं तो इस स्तिथि में वह सवाल कैसे पूछ सकते हैं .. आज के युवा बस नशे की ओर अग्रसर हैं।

डॉक्टर और मेडिकल स्टाफ की कमी

उत्तराखंड में स्वास्थ्य सुविधाओं को लेकर सरकार की गंभीरता का अंदाजा स्वास्थ्य विभाग के रिक्त पदों से लगाया जा सकता है। राज्य का गठन हुए पूरे 23 साल हो चुके हैं लेकिन आज भी पहाड़ी जिलों में रहने वाले लोग छोटी-छोटी बिमारियों के ईलाज के लिए मैदानी जिलों के अस्पतालों पर निर्भर हैं। या वह अपनी मेहनत की सारी कमाई को प्राइवेट हॉस्पिटल में लगा देना उचित समझते हैं ।

क्या कहते हैं इंडियन पब्लिक हेल्थ स्टेंडर्ड के मानक

इंडियन पब्लिक हेल्थ स्टेंडर्ड (आइपीएचएस) के मानकों के अनुसार प्रत्येक सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र में चार विशेषज्ञ (सर्जन, प्रसूति व स्त्री रोग विशेषज्ञ, बाल रोग विशेषज्ञ और चिकित्सा विशेषज्ञ) होने चाहिए।

करियर 360 के आंकड़ों के अनुसार

उत्तराखंड में कुल 87 मेडिकल कॉलेज हैं, इनमें से 19 सार्वजनिक (सरकारी) मेडिकल कॉलेज हैं जबकि 68 प्राइवेट ( निजी ) मेडिकल कॉलेज हैं और कुछ सरकारी मेडिकल कॉलेजों का कार्य चल रहा है लेकिन कब होगा यह पता नहीं, उत्तराखंड में MBBS के लिए सरकारी मेडिकल कॉलेज में लगभग 50 हजार सालाना और निजी कॉलेज में 5 लाख सालाना फीस ली जाती है।
राज्य में अनेक बार समाचार पत्रों में यह खबर छपती है कि स्वास्थ्य विभाग में इतने पदों पर शीघ्र भर्ती की जाएगी लेकिन वह कब की जाएगी यह कौन पूछेगा? राज्य के स्वास्थ्य विभाग में 24,451 राजपत्रित और अराजपत्रित पद स्वीकृत हैं, जिनमे से लगभग 8000 पद वर्तमान में रिक्त है जो कुल स्वीकृत पदों का करीब 34 फ़ीसदी के आस पास है।

रूरल हेल्थ स्टेटिस्टिक्स रिपोर्ट 2019-20

आम व्यक्ति के लिए रोटी कपड़ा और मकान के बाद मूलभूत सुविधाओं में शिक्षा और स्वास्थ्य आता है.. और राज्य में इन दोनों की बहुत बुरी स्थिति है शिक्षा में भी लगभग 7000 स्कूलों की जमीन सरकार की अपनी नहीं है ..
इसी प्रकार रूरल हेल्थ स्टेटिस्टिक्स रिपोर्ट 2019-20 के आंकड़ों पर गौर करें तो उत्तराखंड के ग्रामीण क्षेत्र में कुल 1,839 उपकेंद्र हैं, जिनमें से 543 उपकेंद्र ऐसे हैं जिनके पास अपनी बिल्डिंग नहीं है, इसके अलावा कुल 257 प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र में से 30 के पास अपनी बिल्डिंग नहीं है।

सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्रों में रिक्त पद

सरकारी अस्पतालों में रिक्त पद

इन सरकारी स्वास्थ्य केन्द्रों के स्टाफ़ की बात करें तो 56 सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र में स्पेशलिस्ट के कुल 236 पद स्वीकृत है, जिनमे से लगभग मात्र 36 पदों पर ही विशेषज्ञ डॉक्टर नियुक्त हैं बाकि के 200 पद रिक्त हैं, जो कि कुल स्वीकृत पदों का लगभग 85 % है।

देखा जाए तो उत्तराखंड में एक भी ऐसा सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र नहीं है जिसमे सभी चार विशेषज्ञ कार्यरत हों। प्रदेश में सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों के लिए सर्जनों के 61 स्वीकृत पदों में से लगभग 55 पद रिक्त हैं, ग्रामीण क्षेत्रों में रेडियोग्राफर के कुल 56 पदों में से लगभग 47 पद ख़ाली पड़े हैं, यानी इस हिसाब से देखा जाए तो लगभग उत्तराखंड में सवा दो लाख की आबादी में एक सरकारी डॉक्टर मौजूद है।

इसी प्रकार ग्रामीण प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों और सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों में लेबोरेटरी टेक्नीशियन के लिए कुल 313 लोगों की आवश्यकता है जिसमे से केवल 61 पदों पर नियुक्ति की गयी है। नर्सिंग स्टाफ़ के भी 649 पदों में से 406 पद रिक्त हैं।

यह रिपोर्ट बताती हैं कि वर्तमान में उत्तराखंड के शहरी क्षेत्रों में जनसंख्या के हिसाब से 78 प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र होने चाहिए जबकि वर्तमान में केवल 38 केंद्र हैं।

SDC की रिपोर्ट (उत्तराखंड में स्वास्थ्य व्यवस्था)

सोशल डेवलपमेंट फ़ॉर कम्युनिटी (SDC) फाउंडेशन द्वारा उत्तराखंड सरकार के चिकित्सा, स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण विभाग से सूचना के अधिकार के तहत मांगी गयी जानकारी के आधार पर बनाई गयी रिपोर्ट के अनुसार, राज्य में विशेषज्ञ डॉक्टरों के कुल 1147 पदों में से 654 पद रिक्त हैं। रिपोर्ट के अनुसार राज्य में केवल 43 % विशेषज्ञ डॉक्टर ही सरकारी अस्पतालों में नियुक्त हैं।

हालांकि सरकार लम्बे समय से डॉक्टरों को पहाड़ चढ़ाने की कोशिश कर रही है लेकिन अधिकांश, राजकीय मेडिकल कॉलेजों से पढ़ाई पूरी करने वाले डॉक्टर भी पहाड़ में पोस्टिंग से कतराते हैं। इस समस्या को दूर करने के लिये सरकार के द्वारा बॉन्ड सिस्टम भी शुरू किया गया, जिसके तहत राजकीय मेडिकल कॉलेज में दाखिला लेने वाले छात्रों को फीस में छूट दी जाती है, इस छूट के बदले में छात्रों से पांच साल के लिये पहाड़ो में पोस्टिंग के लिए बॉन्ड भरवाया जाता है।
पर अनेक जगह हमने यह देखा है कि अगर किसी हॉस्पिटल में दो लोगों की पोस्टिंग है तो वहां एक ही आता है और बारी-बारी से वह उस हॉस्पिटल में आते हैं । ज्यादातर वह प्राइवेट क्लीनिक में बैठे रहते हैं।

उत्तराखंड में स्वास्थ्य व्यवस्था के सर्वे में भी पिछड़ा उत्तराखंड

देश के 21 बड़े राज्यों में किए गए एक सर्वे के आधार पर बिहार 21 वें स्थान पर सबसे नीचे है, जबकि उत्तर प्रदेश 20 वें और उत्तराखंड 19 वें स्थान पर है. इससे यह साफ पता चलता है कि उत्तराखंड में स्वास्थ्य व्यवस्था कैसे चल रही है, वहीं इसमें शीर्ष पर केरल है. उसके बाद क्रमश: आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र और गुजरात का स्थान हैं।

उत्तराखंड राज्य का स्वास्थ्य पर खर्च

हिमालयी राज्य उत्तराखंड ने स्वास्थ्य पर खर्च के मामले में अन्य हिमालयी राज्यों की तुलना में अपने हाथ बांधे हुए हैं। भारतीय रिजर्व बैंक की स्टेट Finance A Study Of Budget 2020-2021 की रिपोर्ट के अनुसार, हिमालयी राज्यों में उत्तराखंड सरकार के द्वारा Public Health पर सबसे कम खर्च किया गया ह। इस दौरान उत्तराखंड सरकार ने जन स्वास्थ्य पर GSDP का सबसे कम यानी 1.1 % खर्च किया है , जबकि, जम्मू – कश्मीर ने 2.9 %, हिमाचल प्रदेश ने 1.8 % और पूर्वोत्तर राज्यों ने 2.9% हिस्सा खर्च किया है।

इस साल यानी साल 2023 – 2024 के बजट में स्वास्थ्य विभाग के लिए 4,217.87 करोड़ का प्रावधान किया गया है । जबकि सरकार ने आबकारी विभाग को 81 करोड़ 26 लाख एक हजार दिए गए हैं।

इसके साथ ही एसडीसी फाउंडेशन के अध्ययन के अनुसार भी राज्य ने साल 2017 से 2019 तक प्रति व्यक्ति स्वास्थ्य सेवाओं के मामले में हिमालयी राज्यों में सबसे कम खर्च किया है।

स्वास्थ्य सेवाओं में हिमालयी राज्यों में अरुणाचल प्रदेश ने तीन वर्षों में सबसे ज्यादा 28417 रूपये प्रति व्यक्ति खर्च किये। जबकि उत्तराखंड ने मात्र 5887 रूपये खर्च किये। यहां तक कि पड़ोसी राज्य हिमाचल प्रदेश ने भी इस मद में उत्तराखंड से लगभग 72 % ज्यादा खर्च किया था।

उत्तराखंड में स्वास्थ्य व्यवस्था – बजट में भारी कटौती

भारतीय रिजर्व बैंक की राज्यों के बजट पर आधारित एक वार्षिक रिपोर्ट और उत्तराखंड विधानसभा में प्रस्तुत बजट के दस्तावेजों का विश्लेषण करने पर पता चलता है कि उत्तराखंड में साल 2001-2002 से लेकर 2020-2021 तक राज्य सरकार ने स्वास्थ्य सेवाओं पर अनुमानित 22982 करोड़ रूपये खर्च करने का वादा किया था लेकिन 2019-2020 तक वास्तविक खर्चों और 2020-2021 के पुनरीक्षित अनुमान तक सिर्फ 18697 करोड़ रूपये ही खर्च किया, कुल मिलकर 4285 करोड़ रुपया ऐसा है जो सरकार द्वारा खर्च ही नहीं किया गया।

यही कारण है कि उत्तराखंड के पहाड़ों में बने हुए अनेक हॉस्पिटलों में झाड़ियां जम चुकी हैं, रोज शाम को गांव के लोग हॉस्पिटल के बाहर बैठ कर दारु पी रहे हैं ,हॉस्पिटल की छत में बंदर आराम करते हैं और हॉस्पिटल के पीछे की गैलरी में सांप सो रहे होंगे..

वहीं उत्तराखंड में भयंकर बेरोजगारी होने के कारण अनेक लोग मानसिक रूप से भी बीमार हो रहे हैं जो मानसिक रूप से कमजोर होने के साथ-साथ शरीर से भी एक कमजोर हो चुके हैं ।

उत्तराखंड में स्वास्थ्य व्यवस्था खुद अस्वस्थ है

यानी आप यह समझो कि उत्तराखंड की स्वास्थ्य व्यवस्था को खुद इलाज की जरूरत है .. स्वास्थ्य की इस व्यवस्था को सुधारने की जिम्मेदारी मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी जी के अलावा स्वास्थ्य मंत्री डॉ धन सिंह रावत जी की है. जो उत्तराखंड में स्वास्थ्य विभाग की जिम्मेदारी संभाल रहे हैं .. हमें उम्मीद है की ये लोग इसपर ईमानदारी से काम करेंगे और जल्द अच्छे परिणाम नजर आयेंगे ।

निष्कर्ष – उत्तराखंड में स्वास्थ्य व्यवस्था

जिस राज्य में नेता राज्य की आय शराब से बढ़ाना चाहते हैं वहां स्वास्थ्य पर कैसे ध्यान दिया जा सकता है और सबसे ज्यादा स्वास्थ्य पर कोई बुरा प्रभाव डालता है तो वह मानक पदार्थ हैं, स्वास्थ्य उपचार के लिए तो कोई नीति सही से कार्य नहीं कर रही है, लेकिन ज्यादा ठेके खोलने तथा शराब को जन-जन तक पहुंचाने के लिए आबकारी नीति सही से कार्य कर रही है

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